JEENE KI RAH/ जीने की राह

 

आज का प्रेरक प्रसंग

जीने की राह

दो सत्य कथाऐं पढ़ने के बाद शायद आप भी अपनी ज़िंदगी जीने का अंदाज़ बदल देंगे..

पहली कथा.

दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति बनने के बाद एक बार नेल्सन मंडेला अपने सुरक्षा कर्मियों के साथ एक रेस्तरां में खाना खाने गए। सबने अपनी अपनी पसंद का खाना आर्डर किया और खाना आने का इंतजार करने लगे।

उसी समय मंडेला की सीट के सामने वाली सीट पर एक व्यक्ति अपने खाने का इंतजार कर रहा था। मंडेला ने अपने सुरक्षा कर्मी से कहा कि उसे भी अपनी टेबल पर बुला लो। ऐसा ही हुआ। खाना आने के बाद सभी खाने लगे, वह आदमी भी अपना खाना खाने लगा, पर उसके हाथ खाते हुए कांप रहे थे।

खाना खत्म कर वह आदमी सिर झुका कर रेस्तरां से बाहर निकल गया। उस आदमी के जाने के बाद मंडेला के सुरक्षा अधिकारी ने मंडेला से कहा कि वह व्यक्ति शायद बहुत बीमार था, खाते वख़्त उसके हाथ लगातार कांप रहे थे और वह ख़ुद भी कांप रहा था।

मंडेला ने कहा नहीं ऐसा नहीं है। वह उस जेल का जेलर था, जिसमें मुझे कैद रखा गया था। जब कभी मुझे यातनाएं दी जाती थीं  और मै कराहते हुए पानी मांगता था तो ये मेरे ऊपर पेशाब करता था।

 

मंडेला ने कहा मै अब राष्ट्रपति बन गया हूं, उसने समझा कि मै भी उसके साथ शायद वैसा ही व्यवहार करूंगा। पर मेरा चरित्र ऐसा नहीं है। मुझे लगता है बदले की भावना से काम करना विनाश की ओर ले जाता है। वहीं धैर्य और सहिष्णुता की मानसिकता हमें विकास की ओर ले जाती है।

 

शिक्षा-  कभी भी बदले की भावना से कार्य नही करना चाहिए।

 

दूसरी कथा

मबई से बैंगलुरू जा रही ट्रेन में सफ़र के दौरान टीसी ने सीट के नीचे छिपी लगभग तेरह/चौदह साल की एक लड़की से कहा

टीसी "टिकट कहाँ है?"

काँपती हुई लडकी "नहीं है साहब।"

टी सी "तो गाड़ी से उतरो।"

 

इसका टिकट मैं दे रही हूँ।............पीछे से एक सह यात्री ऊषा भट्टाचार्य की आवाज आई जो पेशे से प्रोफेसर थी ।

 

ऊषा जी - "तुम्हें कहाँ जाना है ?"

लड़की - "पता नहीं मैम!"

ऊषा जी - "तब मेरे साथ चलो, बैंगलोर तक!"

ऊषा जी - "तुम्हारा नाम क्या है?"

लड़की - "चित्रा"

 

बैंगलुरू पहुँच कर ऊषाजी ने चित्रा को अपनी जान पहचान की एक स्वंयसेवी संस्था को सौंप दिया और एक अच्छे स्कूल में भी एडमीशन करवा दिया। जल्द ही ऊषा जी का ट्रांसफर दिल्ली हो गया जिसके कारण चित्रा से संपर्क टूट गया, कभी-कभार केवल फोन पर बात हो जाया करती थी।

 

करीब बीस साल बाद ऊषाजी को एक लेक्चर के लिए सेन फ्रांसिस्को (अमरीका) बुलाया गया । लेक्चर के बाद वह होटल में खाना खाने के लिए चली गयी । खाना खाने के बाद जैसे ही उषा जी बिल देने के लिए रिसेप्सन पर पहुँची तो पता चला पीछे खड़े एक खूबसूरत दंपत्ति ने बिल चुका दिया था।

 

ऊषाजी "तुमने मेरा बिल क्यों भरा?"

मैम, यह मुम्बई से बैंगलुरू तक के रेल टिकट के सामने कुछ भी नहीं है ।

ऊषाजी "अरे चित्रा!" ...

 

चित्रा और कोई नहीं बल्कि  इंफोसिस फाउंडेशन की चेयरमैन सुधा मुर्ति थीं जो  इंफोसिस के संस्थापक श्री नारायण मूर्ति की पत्नी हैं।

यह लघु कथा उन्ही की लिखी पुस्तक "द डे आई स्टाप्पड ड्रिंकिंग मिल्क" से ली गई है।

 

कभी कभी आपके द्वारा की गई किसी की सहायता, किसी का जीवन बदल सकती है।

यदि जीवन में कुछ कमाना है तो पुण्य अर्जित कीजिये, क्योंकि यही वो मार्ग है जो दिल को सुकून पहुँचाता है....

 

सदैव प्रसन्न रहिये।

जो प्राप्त है, वही पर्याप्त हैं।

 

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